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गया में फल्गु नदी तथा विष्णुपद मंदिर को पूर्वजों की मुक्ति के लिए सर्वश्रेष्ठ माना गया है। 

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गया में फल्गु नदी तथा विष्णुपद मंदिर को पूर्वजों की मुक्ति के लिए सर्वश्रेष्ठ माना गया है। 

जितेन्द्र कुमार सिन्हा, पटना, 22 अगस्त ::

गया मोक्ष की भूमि ही नहीं, बल्कि ज्ञान की भूमि, भगवान विष्णु की भूमि, गयासुर की भूमि, फल्गु की भूमि, हिन्दू की भूमि और बौद्ध की भूमि भी है। गया अपने आप में मिथक और कहानियों को समेट रखी है। गया का पहचान विश्वस्तर पर है। आज गया मुख्यतः हिन्दू और बौद्ध अनुयायियों के लिए जाना जाता है। देखा जाय तो प्राचीन काल से गया अपनी धार्मिक सांस्कृतिक महत्ता के लिए पुरी दुनियाँ में आकर्षण का केन्द्र है। फल्गु नदी के तट पर गया शहर  अवस्थित है। इसे विश्व के प्राचीन शहरों में सुमार प्राप्त है। इस शहर को अस्तित्व में लाने का श्रेय सृष्टि के निर्माता ब्रह्मा को है। 

गया का विष्णुपद मंदिर सबसे ज्यादा लोकप्रिय है। यह मंदिर वैष्णवों का  प्रमुख तीर्थस्थल है। इस मंदिर की ऊंचाई 30 मीटर है और इसके आठ खम्भे पर चांदी की परत चढ़ी है। मंदिर के गर्भगृह में भगवान विष्णु के 40 सेंटीमीटर लम्बा पदचिन्ह (पांव के निशान) मौजूद है, जिसके उपर चांदी का अष्टफलक है। इस मंदिर का मंडप 50 वर्गफुट चौड़ा है और मंदिर में प्रवेश के लिए दो द्वार है। विष्णुपद मंदिर फल्गु नदी के तट पर अवस्थित है। पिंडदान कर पूर्वजों की मुक्ति के लिए फल्गु नदी तथा विष्णुपद मंदिर को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। मंदिर भूरे चट्टानी पत्थरों से निर्मित है, जो पत्थरकट्टी नामक स्थान से लागया गया था। भगवान विष्णु का पाद उत्तरामुखी है। मंदिर का मुख्य द्वार पूर्वाभिमुख है। समीप में ही पूर्व की तरफ एक स्तम्भ पत्थर के उपर बना हुआ है, जिसे सोलह वेदी की संज्ञा दी गयी है।  इसी स्तम्भों के नीचे पिंडदान किया जाता है।

वर्तमान में विष्णुपद मंदिर अपनी स्थापत्य कला की छटा बिखेरता है और आत्मविस्मृत करता है। इसकी अलौकिक आभा देखते ही बनती है। इस मंदिर के निर्माण शैली अत्यन्त ही सुन्दर, बेजोड़ एवं प्रशंसनीय है। यहाँ भगवान विष्णु के ‘‘चरण चिन्ह’’ की सांध्य बेला में श्रृंगार होता है जिसके संबंध में कहा जाता है कि श्रृंगार देखने मात्र से ही जीवन धन्य हो जाता है। इस मंदिर के निर्माण के संबंध में बताया जाता है कि गुप्तकाल में सपाट छत का शिखरहीन मंदिर बनाया गया था, जिसे ध्वस्त हो जाने के बाद महीपाल के पुत्र न्यापाल ने पुरोहितों के अनुग्रह पर 11वीं शताब्दी में इसे पुनः बनवाया था, फिर 16वीं शताब्दी में राजपूत राजाओं ने इसे सुंदर पत्थरों को चुने से जोड़कर बनवाया था और अंत में महारानी अहिल्याबाई ने 1760 से 1769 के बीच मंदिर का पुनरूद्धार कराया था। 

मंदिर के पूर्वी दरबाजे के बाहर छत से बूंद-बूंद कर पानी टपकता रहता है। मंदिर के शीर्ष भाग पर स्वर्णध्वज कलश है, जिसे दूर से ही देखा जा सकता है। मंदिर में दक्षिण दिशा में माँ लक्ष्मी और पश्चिम दिशा में भगवान विष्णु की मूर्ति स्थापित है। मुख्य मंदिर के पूर्व में कई स्तम्भों पर मंडप बनाए गए है, जिसमें विशाल घंटा टंगा हुआ है।

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