||| अन्नमय कोश और उसकी साधना |||
श्रोत/ संदर्भ: गायत्री महाविज्ञान
संपादक : वेदमूर्ति तपोनिष्ट पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य
प्रस्तुति ✍️ मानसपुत्र संजय कुमार झा / 9679472555 , 9431003698
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||| ॐ श्री गुरुवे नमः ॐ |||
गायत्री के पाँच मुखों में, आत्मा के पाँच कोशों में प्रथम कोश का नाम अन्नमय कोश है। अत्र का सात्त्विक अर्थ है- पृथ्वी का रस। पृथ्वी से जल, अनाज, फल, तरकारी,घास आदि पैदा होते हैं। उन्हीं से दूध, घी, मांस आदि भी बनते हैं। यह सब अन्न कहे जाते हैं। इन्हीं के द्वारा रज, वीर्य बनते हैं और इन्हीं से इस शरीर का निर्माण होता है। अन्न द्वारा ही देह बढ़ती है. पुष्ट होती है तथा अन्त में अन्नरूप पृथ्वी में ही भस्म होकर सड़-गलकर मिल जाती है, अन्न से उत्पन्न होने वाला और उसी में जाने वाला यह देह प्रधानता के कारण 'अन्नमय कोश' कहा जाता है।
यहाँ एक बात ध्यान में रखने की है कि हाड़-मास का जो यह पुतला दिखाई देता है, वह अत्रमय कोश की अधीनता में है, पर उसे ही अन्नमय कोश न समझ लेना चाहिये। मृत्यु हो जाने पर देह तो नष्ट हो जाती है, पर अत्रमय कोश नष्ट नहीं होता । वह जीव के साथ रहता है। बिना शरीर के भी जीव भूतयोनि में या स्वर्ग-नरक में उन भूख-प्यास, सर्दी, गर्मी, चोट, दर्द आदि को सहता है जो स्थूल शरीर से सम्बन्धित हैं। इसी प्रकार उसे, उन इन्द्रिय भोगों की चाह रहती है, जो शरीर द्वारा भोगे जाने सम्भव हैं। भूतों की इच्छाएँ वैसी ही आहार-विहार की रहती हैं, जैसी शरीर- धारी मनुष्यों की होती हैं। इससे प्रकट है कि अत्रमय कोश शरीर का संचालक, कारण, उत्पादक, उपभोक्ता आदि तो है पर, उससे पृथक् भी है। इसे सूक्ष्म शरीर भी कहा जा सकता है ।
रोग हो जाने पर डाक्टर, वैद्य, उपचार, औषधि,।इन्जेक्शन, शल्य क्रिया आदि द्वारा उसे ठीक करते हैं।
चिकित्सा पद्धतियों की पहुँच स्थूल शरीर तक ही है । इसलिये वह केवल उन्ही रोगों को दूर कर पाते हैं, जो कि
हाड़, मांस, त्वचा आदि के विकारों के कारण उत्पन्न होते हैं। परन्तु कितने ही रोग ऐसे भी हैं, जो अन्नमय कोश की विकृति के कारण उत्पन्न होते हैं, उन्हें शारीरिक चिकित्सक लोग ठीक करने में प्राय: असमर्थ ही रहते हैं।
अनमयकोश की स्थिति के अनुसार शरीर का ढाँचा और रंग रूप बनता है । उसी के अनुसार इन्द्रियों की शक्तियाँ होती हैं । बालक जन्म से ही कितनी ही शारीरिक त्रुटियाँ, अपूर्णतायें या विशेषतायें लेकर आता है। किसी की देह आरम्भ में ही मोटी, किसी की जन्म से ही पतली होती है। आँखों की दृष्टि, वाणी की विशेषता, मस्तिष्क का भौंड़ा या तीव्र होना, किसी विशेष अंग का निर्बल या न्यून होना, अन्नमय कोश की स्थिति के अनुरूप होता है । माता-पिता के रज-वीर्य का भी उसमें थोड़ा प्रभाव होता है, पर विशेषता अपने कोश की ही रहती है। कितने ही बालक माता-पिता की अपेक्षा अनेक बातों में बहुत भित्र पाये जाते हैं ।
शरीर अन्न से बनता और बढ़ता है । अत्र के भीतर सूक्ष्म जीवन तत्त्व रहता है, वह अन्नमय कोश को बनाता है। जैसे शरीर में पाँच कोश हैं, वैसे ही अन्न में तीन कोश हैं- स्थूल, सूक्ष्म, कारण । स्थूल में स्वाद और भार, सूक्ष्म में प्रभाव और गुण तथा कारण के कोश में अन्न का संस्कार रहता है। जिह्वा से केवल भोजन का स्वाद मालूम होता है । पेट उसके बोझ का अनुभव करता है, रस में उसकी मादकता, उष्णता आदि प्रकट होती है ।
अन्नमय कोश पर उसका संस्कार जमता है। मांस आदि अनेक अभक्ष्य पदार्थ ऐसे हैं, जो जीभ को स्वादिष्ट लगते हैं, देह को मोटा बनाने में भी सहायक होते हैं, पर उनमें सूक्ष्म संस्कार ऐसा होता है, जो अन्नमय कोश को विकृत एवं शारीरिक अपूर्णता के रूप में चलता है। इसलिये आत्म विद्या के ज्ञाता सदा सात्त्विक, सुसंस्कारी अन्न पर कर देता है और उसका परिणाम अदृश्य रूप से आकस्मिक रोगों के रूप में तथा जन्म-जन्मान्तर तक कुरूपता जोर देते हैं, ताकि स्थूल शरीर में बीमारी, कुरूपता, अपूर्णता, आलस्य एवं कमजोरी की बढ़ोत्तरी न हो। जो लोग से वञ्चित रखे रहेगी। इस प्रकार अनीति से उपार्जित धन या पाप की कमाई प्रकट में आकर्षक लगने पर भी अभक्ष्य खाते हैं, वे अब नहीं तो भविष्य में ऐसी आन्तरिक विकृति से ग्रस्त हो जायेंगे, जो उनको शारीरिक सुख।अन्नमय कोश को दूषित करती है और अन्त में शरीर को विकृत तथा चिररोगी कर देती है। धन सम्पन्न होने पर भी ऐसी दुर्दशा भोगने के अनेक उदाहरण प्रत्यक्ष दिखाई दिया करते हैं।
कितने ही शारीरिक विकारों की जड़ अन्नमय कोश में होती है। उनका निवारण दवा-दारू से नहीं, यौगिक
साधनाओं से हो सकता है। जैसे संयम, चिकित्सा, शल्यक्रिया, व्यायाम, मालिश, विश्राम, उत्तम आहार-विहार, जलवायु आदि से शारीरिक स्वास्थ्य में बहुत कुछ अन्तर हो सकता है, वैसे ही कुछ ऐसी भी प्रक्रियाएँ है जिनके द्वारा अन्नमय कोश को परिमार्जित एवं परिपुष्ट किया जा सकता है और विविध-विध शारीरिक अपूर्णताओं से छुटकारा पाया जा सकता है । ऐसी पद्धतियों में १-उपवास २-आसन, ३-तत्त्व शुद्धि, ४- तपश्चर्या- ये चार मुख्य हैं । इन चारों पर इस प्रकरण में कुछ प्रकाश डालेंगे ।
||| इति शुभम् प्रभातम ... ॐ शांति ॐ ( क्रमशः ) |||
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