||| गायत्री गीता |||
प्रस्तुति : मानसपुत्र संजय कुमार झा / व्हाट्सएप :
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||| ॐ श्री गुरुवे नमः ॐ |||
वेदमाता गायत्री का मन्त्र छोटा-सा है। उसमें २४ अक्षर हैं, पर इतने थोड़े में ही अनन्त ज्ञान का समुद्र भरा पड़ा है। जो ज्ञान गायत्री के गर्भ में है, वह इतना सर्वांगपूर्ण एवं परिमार्जित है कि मनुष्य यदि उसे प्रकार समझ ले और अपने जीवन में व्यवहार करे, तो उससे लोक-परलोक सब प्रकार से सुख-शान्तिमय का सकते हैं।
आध्यात्मिक और सांसारिक दोनों ही दृष्टिकोण से गायत्री का सन्देश बहुत ही अर्थ पूर्ण है। उसे गम्भीरतापूर्वक समझा और मनन किया जाए, तो सदज्ञान का अविरल स्रोत प्रस्फुटित होता है। नीचे संक्षित सा गायत्री मन्त्रार्थ दिया जाता है। यही गायत्री गीता है-
ओमित्येव सुनामधेयमनघं विश्वात्मनो ब्रह्मणः ।
सर्वेष्वेव हि तस्य नामसु वसोरेतत्प्रधानं मतम् ।।
यं वेदा निगदन्ति न्यायनिरतं श्रीसच्चिदानन्दकम् ।
लोकेशं समदर्शिनं नियमनं चाकारहीनं प्रभुम् ।।१ ।।
अर्थ- जिसको वेद न्यायकारी, सच्चिदानन्द, सर्वेश्वर, समदर्शी, नियामक, प्रभु और निराकार कहते हैं, जो विश्व में आत्मा रूप से उस ब्रह्म के समस्त नामों में श्रेष्ठ नाम, पाप-रहित, पवित्र और ध्यान करने योग्य है, वह "ॐ" ही मुख्य नाम माना गया है।
भावार्थ- "परमात्मा को प्राप्त करने और प्रसन्न करने का मार्ग उसके नियमों पर चलना है। वह निन्दा-स्तुति से प्रभावित नहीं होता, वरन् कर्मों के अनुसार फल देता है। परमात्मा को सर्वत्र व्यापक समझकर गुप्त रूप से भी पाप न करना चाहिये । प्राणियों की सेवा करना परमात्मा की ही पूजा करना है। परमात्मा को अपने अन्तस् में अनुभव करने से आत्मा पवित्र होती है और सत्, चैतन्यता तथा आनन्द की अनुभूति होती है।
भूवै प्राण इति ब्रुवन्ति मुनयो वेदान्तपारं गताः,
प्राणः सर्वविचेतनेषु प्रसृतः सामान्यरूपेण च।
एतेनैव विसिद्ध्यते हि सकलं नूनं समानं जगत्,
द्रष्टव्यः सकलेषु जन्तुषु जनैर्नित्यं ह्यसुश्चात्मवत् ॥२ ॥
अर्थ- मुनि लोग प्राण को 'भूः' कहते हैं। यह प्राण समस्त प्राणियों में सामान्य रूप से फैला हुआ है। इससे सिद्ध है कि यहाँ सब समान है। अतएव सब मनुष्यों और प्राणियों को अपने समान ही देखना चाहिए।
भावार्थ- अपने समान सबको कष्ट होता है, इसलिये किसी को सताना नहीं चाहिये। दूसरों के प्रति वही व्यवहार करना चाहिये, जो हम दूसरों से अपने लिये चाहते हैं, सबमें समत्व की दृष्टि रखनी चाहिये। कुल, वंश, देश, जाति, समुदाय, स्त्री, पुरुष आदि भेदों के कारण किसी को नीचा-ऊँचा, छोटा-बड़ा नहीं समझना चाहिये। उच्चता और नीचता का कारण तो भले-बुरे कर्म ही हो सकते हैं।
भुवर्नाशो लोके सकलविपदां वै निगदितः,
कृतं कार्यं कर्त्तव्यमिति मनसा चास्य करणम् ।
फलाशां मर्त्या ये विदधति न वै कर्मनिरताः,
लभन्ते नित्यं ते जगति हि प्रसादं सुमनसाम् ॥३ ।।
अर्थ- संसार में समस्त दुःखों का नाश ही 'भुवः' कहलाता है। कर्तव्य-भावना से किया गया कार्य ही कर्म कहलाता है। परिणाम में सुख की अभिलाषा को छोड़कर जो कार्य करते हैं, वे मनुष्य सदा प्रसन्न रहते हैं।
भावार्थ- मनुष्य का अधिकार कार्य करना है, फल देने वाला ईश्वर है। अमुक वस्तु प्राप्त होने पर ही सुख माना जाए, ऐसा सोचने के बजाय ऐसा सोचना चाहिये, कि कर्तव्य-पालन ही हमारे लिये आनन्द का सर्वोत्तम केन्द्र है। जो अपने कर्तव्य कर्म को ही लक्ष्य मान लेता है, वह कर्मयोगी हर घड़ी सुखी रहता है। जो इच्छित फल की आशा के लिये लटका रहता है, उस तृष्णावान् को सदा सत्कर्म करते रहना चाहिये, गीता के कर्मयोग का यही तत्त्व है।
स्वरेषो वै शब्दो निगदति मनः स्थैर्य-करणम्,
तथा सौख्यं स्वास्थ्यं ह्युपदिशति चित्तस्य चलतः ।
निमग्नत्वं सत्यव्रतसरसि चाचक्षति उत,
त्रिधां शांतिं होतां भुवि च लभते संयमरतः ॥४।
अर्थ- 'स्वः' यह शब्द मन की स्थिरता का निर्देश करता है। चञ्चल मन को सुस्थिर और स्वस्थ रखो, यह उपदेश देता है। सत्य में निमग्न रहो, यह कहता है। इस उपाय से संयमी पुरुष तीनों प्रकार की शान्ति को प्राप्त करते हैं।
भावार्थ - अनिच्छित परिस्थिति प्राप्त होने पर प्रायः मनुष्य शोक, दुःख, क्रोध, द्वेष, दोनता, निराशा चिन्ता भय , बेचैनी आदि से उद्विग्न होकर अपना मानसिक संतुलन खो बैठते हैं और अनुकूल परिस्थिति प्राप्त होने पर अहंकार , मद, उद्दण्डता, खुशी में फूलकर अस्वाभाविक आचरण करना, इतराना, अपव्यय, शेखी आदि से ग्रस्त हो जाते हैं ! वे दोनों ही स्थितियाँ एक प्रकार का नशा या ज्वर हैं। ये विवेक को अन्धा कर देते हैं, जिससे विचार के कायों की उचित श्रृंखला नष्ट-भ्रष्ट हो जाती है और आदमी अन्धा तथा बावला बन जाता है। इन सत्यनाशी तूफानों से आत्मा की रक्षा करने के लिये मन को स्थिर, सन्तुलित, स्वच्छ एवं सत्यप्रेमी बनाना चाहिये, तभी मनुष को आत्मिक, बौद्धिक तथा शारीरिक शांति मिल सकती है।
ततो वै निष्पत्तिः स भुवि मतिमान् पण्डितवर,
विजानन् गुह्यं यो मरणजीवनयोस्तदखिलम् ।
अनन्ते संसारे विचरति भयासक्तिरहित,
स्तथा निर्माणं वै निजगतिविधीनां प्रकुरुते ।।५ ।।
अर्थ- 'तत्' शब्द यह बतलाता है कि इस संसार में वही बुद्धिमान् है, जो जीवन और मरण के रहस्य से जानता है। भय और आसक्ति रहित जीता और अपनी गतिविधियों का निर्माण करता है।
भावार्थ- मृत्यु सदा सिर पर खड़ी नाचती रहती है। इस समय साँस चल रही है, अगले ही क्षण बन्द हो जाए, इसका क्या ठिकाना है ? यह सोचकर इस सुर-दुर्लभ मानव-जीवन का श्रेष्ठतम उपयोग करना चाहिये और थोड़े जीवन में क्षणिक सुख के लिये पाप क्यों किये जाएँ, जिससे चिरकाल तक दुःख भोगने पड़े, ऐसा विचार करना चाहिये ।
यदि विद्याध्ययन, समाज-सुधार, धर्म-प्रचार आदि श्रेष्ठ कार्य करने हों, तो ऐसा सोचना चाहिये कि जीवन अखण्ड है। यदि इस शरीर से वह कार्य पूरा न हो सका, तो अगले में पूरा करेंगे। यह निर्विवाद है, कि जो इस जीवन का सदुपयोग कर रहा है, उसे मृत्यु के पश्चात् आनन्द ही मिलेगा। परलोक, पुनर्जन्म आदि में मुख हो प्राप्त होगा, पर जो इन जीवन-क्षणों का दुरुपयोग कर रहा है, उसका भविष्य अन्धकारमय है। इसलिये जो बीत चुका है, उसके लिये दुःख न करते हुए शेष जीवन का सदुपयोग करना चाहिये ।
सवितुस्तु पदं वितनोति ध्रुवं,
मनुजो बलवान् सवितेव भवेत् ।
विषया अनुभूतिपरिस्थितय -
स्तु सदात्मन एव गणेदिति सः ।। ६ ।।
अर्थ- 'सवितुः' यह पद बतलाता है कि मनुष्य को सूर्य के समान बलवान् होना चाहिये और सभी विश्य तथा अनुभूतियाँ अपनी आत्मा से ही सम्बन्धित हैं, ऐसा विचारना चाहिये ।
भावार्थ- सूर्य को वीर्य और पृथ्वी को रज कहा जाता है। सूर्य की शक्ति से संसार की सब क्रियायें होती हैं। इसी प्रकार आत्मा अपनी क्रियाशीलता द्वारा विविध प्रकार की परिस्थितियाँ उत्पन्न करती है। प्रारब्ध, भाग्य दैव आदि भी अपने प्राचीन कर्मों का ही परिपाक मात्र है। इसलिये अपने लिये जैसी परिस्थिति अच्छी लगती है उसी के योग्य अपने को बनाना चाहिये। अपना भाग्य-निर्माण करना हर मनुष्य के अपने हाथ में है। इसलिये आत्म-निर्माण की ओर ही सबसे अधिक ध्यान देना चाहिये। बाहर की सहायता भी अपनी अन्तरंग स्थिति के अनुकूल ही मिलती है।
मनुष्य को तेजस्वी, बलवान्, पुरुषार्थी बनना चाहिये। स्वास्थ्य, विद्या, धन, चतुरता, संगठन, यश, साहस और सत्य इन आठ बलों से अपने को सदैव बलवान् बनाने का प्रयत्ल करना चाहिये ।
वरेण्यञ्चैतद्वै प्रकटयति श्रेष्ठत्वमनिशम्,
सदा पश्येच्छ्रेष्ठं मननमपि श्रेष्ठस्य विदधेत् ।
तथा लोके श्रेष्ठं सरलमनसा कर्म च भजेत्,
तदित्थं श्रेष्ठत्वं व्रजति मनुजः शोभितगुणैः ॥७ ॥
अर्थ- 'वरेण्यं' यह शब्द प्रकट करता है कि प्रत्येक मनुष्य को नित्य श्रेष्ठता की ओर बढ़ना चाहिये । श्रेष्ठ देखना श्रेष्ठ चिन्तन करना, श्रेष्ठ विचारना, श्रेष्ठ कार्य करना इस प्रकार से मनुष्य को श्रेष्ठता देत होताहै। थे इन वार्थ- मनुष्य वैसा ही बनता है, जैसे उसके विचार होते हैं। विचार साँचा है और जीवन गीली मिट्टी । विवारों में हम डूबे रहते हैं, हमारा जीवन उसी ढाँचे में ढलता जाता है, वैसे ही आचरत्ती होने लगते हैं। वैसे है साथी मिलते हैं, उसी दिशा में जानकारी, रुचि तथा प्रेरणा मिलती है। इसलिये यदि अपने आप को श्रेष्ठ बनाना है तो सादा श्रेष्ठ मनुष्यों के संपर्क में रहना, श्रेष्ठ पुस्तकें पढ़ना, श्रेष्ठ बातें सोचना, श्रेष्ठ घटनाये देखना श्रेष्ठ कार्य कामा आवश्यक है। दूसरों में जो श्रेष्ठतायें हों उनकी कदर करना और उन्हें अपनाना, श्रेष्ठता में श्रद्धा रखना ये लोगों के लिये बहुत आवश्यक हैं, जो अपने को श्रेष्ठ बनाना चाहते है !
भगों व्याहरते पदं हि नितरां लोकः सुलोको भवेत्,
पापे पाप-विनाशने त्वविरतं, दत्तावधानो वसेत् ।
दृष्ट्वा दुष्कृतिदुर्विपाक-निचयं तेभ्यो जुगुप्सेद्धि च,
तन्नाशाय विधीयतां च सततं, संघर्षमेभिः सह ।। ८ ।।
अर्थ- 'भर्गो' यह पद बताता है कि मनुष्य को निष्पाप बनना चाहिये। पापों से सावधान रहना चाहिये। पापों के दुष्परिणामों को देखकर उनसे घृणा करे और निरन्तर उनको नष्ट करने के लिये संघर्ष करता रहे ।
भावार्थ-संसार में जितने दुःख है, पापों के कारण है। अस्पतालों में, जेलखानों में तथा अन्यत्र नाना प्रकार के कहों से पीड़ित मनुष्य अब के या पुराने पापों से ही दुःख भोगते हैं। नरक में भी पापी ही त्रास पाते हैं। सन्त और परोपकारी पुरुष दूसरों के पापों का बोझ अपने सिर पर लेकर दुःख उठाते हैं और उन्हें शुद्ध करते हैं। चाहे, दूसरों का दुःख कोई सन्त सहे, चाहे पापी स्वयं सहे, हर हालत में दुःखों का कारण पाप ही है। इसलिये जिन्हें दुःख का भय है और सुख की इच्छा है, उन्हें चाहिये कि पापों से बचें और भूतकाल के पापों के लिये प्रायश्चित करें। पापों से सावधानी रखना और उन्हें भीतर-बाहर से नष्ट करने के लिये संघर्ष करना- यह बहुत बड़ा पुण्य-कार्य है, क्योंकि इससे अगणित प्राणी दुःखों से छुटकारा पाकर सुखी बनते हैं। निष्पापता में ही सच्चे आनन्द का निवास है ।
देवस्येति तु व्याकरोत्यमरतां मत्यर्योऽपि संप्राप्यते,
देवानामिव शुद्धदृष्टिकरणात् सेवोपचाराद् भुवि । निःस्वार्थं परमार्थ-कर्मकरणात् दीनाय दानात्तथा,
बाह्याभ्यन्तरमस्य देवभुवनं संसृज्यते चैव हि ॥९ ॥
अर्थ- 'देवस्य' यह पद बतलाता है कि मरणधर्मा मनुष्य भी अमरता अर्थात् देवत्व को प्राप्त कर सकता है। देवताओं के समान शुद्ध दृष्टि रखने से, प्राणियों की सेवा करने से, परमार्थ कर्म करने से, निर्बलों की सहायता करने से मनुष्य के भीतर और बाहर देवलोक की सृष्टि होती है।
भावार्थ- परमात्मा की बनाई हुई इस पवित्र सृष्टि में जो कुछ है, पवित्र और आनन्दमय ही है। इस सृष्टि को, संसार को प्रसन्नता की दृष्टि से देखना, उसमें मनुष्यों द्वारा उत्पन्न की गयी बुराइयों को दूर करना और ईश्वरीय श्रेष्ठताओं को विकसित करना, प्रचलित करना देवकर्म है। इस देव-दृष्टि को धारण करने से मनुष्य देवता बन सकता है। जो अपने को शरीर न समझ कर आत्मा अनुभव करता है, वह अमर है। उसके पास से मृत्यु का भय दूर हो जाता है। प्राणियों को प्रेम और आत्मीयता की पवित्र दृष्टि से देखना, अपने आचरणों को पवित्र रखना, अपने से निर्बलों को ऊँचा उठाने के लिये अपनी शक्ति का दान करना यह देवत्व है। इन गुण वालों के लिये यह भूलोक भी देवलोक के समान आनन्दमय बन जाता है।
शक्तिचय वयमित्युपदिष्टाः ।
नो मनुजो लभते सुखशांति-
मनेन विनेति वदन्ति हि वेदाः ।।१० ।।
अर्थ- 'धीमहि' का आशय है कि हम सब लोग हृदय में सब प्रकार की पवित्र शक्तियों को धारण करें। वेद कहते हैं कि इसके बिना मनुष्य सुख-शान्ति को प्राप्त नहीं होता।
भावार्थ- संसार में भौतिक शक्तियाँ अनेक हैं। धन, पद, वैभव, राज्य, शरीर-बल, संगठन, शस्व, विद्या, बुद्धि , चतुरता कोई विशेष योग्यता आदि के बल पर लोग ऐश्वर्य और प्रशंसा प्राप्त कर लेते हैं, पर यह अस्थायी है। इनसे सुख मिल सकता है, पर वह छोटे-मोटे आघात में ही नष्ट भी हो सकता है। स्थायी सुख आध्यात्मिक पवित्र गुणों में है, जिन्हें 'दैवी सम्पदायें' या 'दिव्य शक्तियाँ' भी कहते हैं। निर्भयता, विवेक, स्थिरता, उदयद संथम, परमार्थ, स्वाध्याय, तपश्चर्या, दया, सत्य, अहिंसा, नम्रता, धैर्य, अद्रोह, प्रेम, न्यायशीलता, निरालस्य और दैवी गुणों के कारण जो सुख मिलता है, उसकी तुलना किसी भी भौतिक सम्पदा से नहीं हो सकती। इसलिये अपनी दैवी सम्पदाओं का कोश बढ़ाने का प्रयल करते रहना चाहिये ।
धियो मत्योन्मध्यागमनिगममन्त्रान् सुमतिमान्,
विजानीयात्तत्त्वं विमलनवनीतं परमिव ।
यतोऽस्मिन् लोके वै संशयगत - विचार-स्थलशते,
मतिः शुद्धैवाच्छा प्रकटयति सत्यं सुमनसे ।११ ।
अर्थ- 'धियो' पद बतलाता है कि बुद्धिमान् को चाहिये, वह वेद-शास्त्रों को बुद्धि से मथ कर मक्खन के समान उत्कृष्ट तत्त्वों को जाने, क्योंकि शुद्ध बुद्धि से ही सत्य को जाना जाता है।
भावार्थ- संसार में अनेक विचारधाराये हैं, उनमें से अनेकों आपस में टकराती भी हैं। एक शास्त्र के सिद्धांत दूसरे शास्त्र के विपरीत भी बैठते हैं। इसी कारण एक विद्वान् या ऋषि के विचार दूसरे विद्वान् या ऋषि के विचारों से पूर्णतया मेल नहीं खाते। ऐसी स्थिति में विचलित नहीं होना चाहिये। देश, काल, पात्र और परिस्थिति के अनुसार जो बात एक समय बिल्कुल ठीक होती है, वही भिन्त्र परिस्थितियों में गलत भी हो सकती है। जाड़े के दिनों में जो कपड़े लाभदायक होते हैं, उनसे गमों में काम नहीं चलाया जा सकता। इसी प्रकार एक परिस्थिति में जो बात उचित है, वह दूसरी परिस्थिति में अनुचित हो जाती है। इसलिये किसी ऋषि, विद्वान्, नेता व शास्त्र की निन्दा न करते हुए हमें उसमें से वही तत्त्व लेने चाहिये, जो आज की स्थिति के अनुकूल हैं। इस उचित-अनुचित का निर्णय तर्क, विवेक और न्याय के आधार पर वर्तमान परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए करना चाहिये।
योनो वास्ति तु शक्तिसाधनचयो न्यूनाधिकश्चाथवा,
भागं न्यूनतमं हि तस्य विदधेमात्मप्रसादाय च। यत्पश्चादवशिष्टभागमखिलं त्यक्त्वा फलाशां हृदि,
तद्धीनेष्वभिलाषवत्सु वितरेद् ये शक्तिहीनाः स्वयम्
॥१२ ।।
अर्थ- 'योन:' पद का तात्पर्य है कि हमारी जो भी शक्तियाँ एवं साधन है, चाहे वे न्यून हों अथवा अधिक हो, उनके न्यून से न्यून भाग को ही अपनी आवश्यकता के लिये प्रयोग में लायें और शेष को निःस्वार्थ भाव से अशक्त बाँट व्यक्तियों को बॉट दें।
भावार्थ भगवान् ने मनुष्य को ज्ञान, बल तथा वैभव एक अमानत के रूप में इसलिये दिये हैं कि इन विभूतियों से सुसज्जित होकर अपने आप का मान, यश, सुख तथा पुण्य का श्रेय प्राप्त करे और इनका लाभ अधिक से अधिक मात्रा में दूसरों को उठाने दें। अपने ऐश, आराम, भोग, संचय या अहंकार की पूर्ति में इनका उपयोग नहीं होना चाहिये। वरन् लोकहित के लिये, अपने से निर्बलों की सहायता के लिये इनका उपयोग किया जाना चाहिये । विद्वान्, बलवान् या धनवान् का गौरव इसी बात में है कि उनके द्वारा कम ज्ञान वालों को, निर्धन को ऊँचा उठाने का प्रयास किया जाए। जैसे वृक्ष , कृप , तगड़, उपवन , पुष्प अग्नि, जल, वायु, बिजली आदि श्रेष्ठ समने जाने वाले पदार्थ, अपनी महान् शक्तियों को लोक- हित के लिये सदैव वितरित करते रहते है! वैसे ही हमें अपनी शक्तियों का जीवन-निर्वाह मात्र अपने लिये रख कर शेष को जनहित के लिये समर्पित कर देना चाहिये ।
प्रचोदयात् स्वं त्वितरांश्च मानवान्,
नरः प्रयाणाय च सत्यवर्त्मनि ।
कृतं हि कर्माखिलमित्थमंगिना,
वदन्ति धर्म इति हि विपश्चितः ॥१३ ।।
अर्थ- 'प्रचोदयात्' पद का अर्थ है कि मनुष्य अपने आपको तथा दूसरों को सत्य मार्ग पर चलने के लिये प्रेरणा दे। इस प्रकार किये हुए सब कामों को विद्वान् लोग धर्म कहते हैं।
भावार्थ- प्रेरणा संसार की सबसे बड़ी शक्ति है। इसके बिना सारी साधन सामग्री बेकार है, बाहे वह कितनी ही बड़ी क्यों न हो। प्रेरणा से उत्साहित और प्रवृत्त हुआ मनुष्य यदि कार्य आरम्भ कर देता है, तो साधन अपने आप जुटा लेता है। उसे ईश्वरीय सहायतायें मिलती है और अनेक सहयोगी प्राप्त हो जाते हैं। इसलिये अपने आपको सन्मार्ग पर चलाने के लिए प्रेरणा तथा प्रोत्साहन प्राप्त करना चाहिये तथा दूसरों को श्रेष्ठता को दिशा में अग्रसर करने के लिये उन्हें प्रेरित करना चाहिये। वस्तुयें देकर किसी का उतना उपकार नहीं किया जा सकता है। सत्कार्य के लिये प्रेरणा देना इतना बड़ा पुण्य कार्य है कि उसकी तुलना में छोटी-मोटी पुण्य-क्रियायें बहुत ही तुच्छ
बैठती है।
गायत्री-गीतां होतां यो नरो वेत्ति तत्त्वतः ।
स मुक्त्वा सर्वदुः खेभ्यः सदानन्दे निमज्जति ।।१४ ।।
अर्थ- जो मनुष्य इस गायत्री-गीता को भली प्रकार जान लेता है, वह सब प्रकार के दुःखों से छूट कर सदा आनन्दमग्न रहता है।
गायत्री गोता के उपर्युक्त १४ श्लोक समस्त वेद शास्त्रों में भरे हुए ज्ञान का निचोड़ है। समुद्र मन्थन से १४ रल निकले थे। समस्त शास्त्रों के समुद्र का मन्चन करके निकाले गये यह १४ श्लोक रूपी १४ रन है। जो व्यक्ति इन्हें भली प्रकार हृदयंगम कर लेता है, वह कभी भी दुःखी नहीं रह सकता, उसे सदा आनन्द ही आनन्द रहेगा।
||| इति शुभम् प्रभातम ... ॐ शांति ॐ ( क्रमशः ) ||
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