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नारायण महाभाग गायत्र्यास्तु समासतः । शान्त्यादिकान्प्रयोगांस्तु वदस्व करुणानिधे

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||  गायत्री तन्त्र  |||
[  गायत्री का गोपनीय वाम मार्ग  ] ( पेज २०९ - २१४ ) 
(  भाग १ )
श्रोत/ संदर्भ : वेदमूर्ति तपोनिष्ट पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य ! 
प्रस्तुति :  मानसपुत्र संजय कुमार झा ,  व्हाट्सएप संपर्क : 9679472555 , 9431003698 
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              |||  ॐ श्री गुरुवे नमः ॐ  ||| 

               ⭐ अथ गायत्रीतन्त्रम्  ⭐
नारद उवाच- 

नारायण महाभाग गायत्र्यास्तु समासतः । शान्त्यादिकान्प्रयोगांस्तु वदस्व करुणानिधे ! ।।१ ।।

नारदजी ने प्रश्न किया- हे नारायण ! गायत्री के शान्ति आदि के प्रयोग को कहिये । 

नारायण उवाच-
अतिगुह्यमिदं पृष्टं त्वया ब्रह्मतनूद्भव ।
वक्तव्यं न कस्मैचिद् दुष्टाय पिश्नाय च ॥२ ।।

यह सुनकर श्री नारायण ने कहा कि हे नारद ! आपने अत्यन्त गुप्त बात पूछी है, परन्तु उसे किसी दुष्ट या
पिशुन (छलिया) से नहीं कहना चाहिये।

अथ शान्त्यर्थमुक्ताभिः समिद्भिर्जुहुयाद् द्विजः ।
शमी समिद्भिः शाम्यन्ति भूतरोगग्रहादयः ॥ ३ ॥
द्विजों को शान्ति प्राप्त करने के लिये हवन करना आवश्यक है तथा शमी की समिधाओं से हवन करने पर
भूत-रोग एवं ग्रहादि की शान्ति होती है।

"आर्द्राभिः क्षीरवृक्षस्य समिद्भिर्जुहुयाद् द्विजः ।
जुहुयाच्छकलैर्वापि भूतरोगादिशान्तये ॥ ४ ॥
दूध वाले वृक्षों की आर्द्र समिधाओं से हवन करने पर ग्रहादि की शान्ति होती है। 

जलेन तर्पयेत्सूर्यं पाणिभ्यां शान्तिमाप्नुयात्।
जानुघ्ने जले जप्त्वा सर्वान् दोषान् शमं नयेत ॥ ५ ॥
सूर्य को हाथों द्वारा जल से सब दोषों की शान्ति होती
से तर्पण करने पर शान्ति मिलती है तथा घुटनों पर्यन्त पानी में स्थिर होकर जपने से सब दोषों की शांति होती है।

कण्ठदघ्ने जले जप्त्वा मुच्येत् प्राणान्तिकाद् भयात् ।
सर्वेभ्यः शान्तिकर्मभ्यो निमज्याप्सु जपः स्मृतः ॥६॥
कण्ठ पर्यन्त जल में खड़ा होकर जप करने से प्राणों के नाश होने का भय नहीं रहता, इसलिये सब प्रकार
की शान्ति प्राप्त करने के लिये जल में प्रविष्ट होकर जप करना श्रेष्ठ है।

सौवर्णे राजते वापि पात्रे ताम्रमयेऽपि वा।
क्षीरवृक्षमये वापि निश्छिद्रे मृन्मयेऽपि वा ॥ ७ ॥
सहस्रं पंचगव्येन हुत्वा सुज्वलितेऽनले ।
क्षीरवृक्षमयैः काष्ठैः शेषं सम्पादयेच्छनैः ।। ८ ।।
सुवर्ण, चाँदी, ताँबा, दूध वाले वृक्ष की लकड़ी से बने या छेद रहित मिट्टी के बर्तन में पञ्चगव्य रखकर दुग्ध
बाले वृक्ष की लकड़ियों से प्रज्वलित अग्नि में हवन करना चाहिये ।

प्रत्याहुतिं स्पृशञ्जप्त्वा तद्गव्यं पात्रसंस्थितम् ।
तेन तं प्रोक्षयेद्देशं कुशैर्मन्त्रमनुस्मरन् ।।९ ।।
प्रत्येक आहुति में पञ्चगव्य को स्पर्श करना चाहिये तथा मन्त्रोच्चारण करते हुए कुशाओं द्वारा पंचगव्य  ही से सम्पूर्ण स्थान का मार्जन करना चाहिये ।

बलिं प्रदाय प्रयतो ध्यायेत परदेवताम् ।
अभिचारसमुत्पन्ना कृत्या पापं च नश्यति ॥१० ।।
पश्चात् बलि प्रदान कर देवताओं का ध्यान करना चाहिये। इस प्रकार ध्यान करने से अभिचारोत्पन्न कृत्यों
और पाप की शान्ति होती है।

देवभूतपिशाचादीन् यद्येवं कुरुते वशे ।
गृहं ग्रामं पुरं राष्ट्रं सर्वं तेभ्यो विमुच्यते ॥ ११ ॥
देवता, भूत और पिशाच आदि को वश में करने के लिये भी उपर्युक्त कही हुई विधि करनी चाहिये। इस
प्रकार की क्रिया से देवता, भूत, पिशाच सभी अपना-अपना घर, ग्राम, नगर और राज्य छोड़कर वश में हो जाते हैं।

चतुष्कोणे हि गन्धेन मध्यतो रचितेन च ।
मण्डले शूलमालिख्य पूर्वोक्ते च क्रमेऽपि वा ॥१२ ।।
अभिमन्त्र्य सहस्रं तन्त्रिखनेत्सर्व सिद्धये ।
चतुष्कोण मण्डल में गन्ध से शूल लिखकर और पूर्वोक्त विधि द्वारा सहस्र गायत्री का जप कर, गाढ़ देने पर
सब प्रकार की सिद्धि मिलती है।

सौवर्ण, राजतं वापि कुम्भं ताम्रमयं च वा ।।१३ ।।
मृन्मयं वा नवं दिव्यं सूत्रवेष्टितमव्रणम् ॥
स्थण्डिले सैकते स्थाप्य पूरयेन्मन्त्रितैर्जलैः ॥१४ ।।
दिग्भ्य आहृत्य तीर्थानि चतसृभ्यो द्विजोत्तमैः ।।
सोना, चाँदी, ताँबा, मिट्टी आदि में से किसी एक का छेद रहित घड़ा लेकर सूत्र से ढक कर बालुका युक्त
स्थान में स्थापित कर श्रेष्ठ ब्राह्मणों द्वारा चारों दिशाओं से लाये हुए जल से भरें ।

एला, चन्दन, कर्पूर, जाती, पाटल, मल्लिकाः ।। १५ ।।
बिल्वपत्रं तथाक्रान्तां, देवीं ब्रीहि यवांस्तिलान् ।
सर्षपान् क्षीरवृक्षाणां प्रवालानि च निक्षिपेत् ||१६ ।।
इलायची, चन्दन, कपूर, पाटल, बेला, बिल्व-पत्र, विष्णु-क्रान्ता, देवी (सहदेई), जौ, तिल, सरसों और
निकालने वाले वृक्षों के पत्ते लेकर उसमें छोड़ें।

सर्वमेवं विनिक्षिप्य कुशकूर्चसमन्वितम् ।
स्नातः समाहितो विप्रः सहस्रं मन्त्रयेद् बुधः ।।१७ ।।
इस प्रकार सबको छोड़कर कुशा की कूँची बनाकर तथा उसे भी घड़े में छोड़कर स्नान करके एक हजार बार
मन्त्र का जप करना चाहिये ।

दिक्षु सौरानधीयीरन् मन्त्रान् विप्रास्त्रयीविदः ।
प्रोक्षयेत्पाययेदेनं नीरं तेनाभिषिंचयेत् ।। १८ ।।
धर्मादि के ज्ञाता ब्राह्मण द्वारा मन्त्रों से पूतीकृत इस जल से भूत आदि की बाधा से पीड़ित पुरुष के ऊपर
मार्जन करे तथा पिलाए और गायत्री मन्त्र के साथ इसी जल से अभिषिंचन करे ।

भूत रोगाभिचारेभ्यः स निर्मुक्त: सुखीभवेत् ।
अभिषेकेण मुच्येत मृत्योरास्यगतो नरः ।।१९ ।।
इस प्रकार अभिषिंचन करने पर, मरणासन्न हुआ मनुष्य भी भूत व्याधि से मुक्त होकर सुखी हो जाता है।

अवश्यं कारयेद्विद्वान् राजा दीर्घं जिजीविषुः ।
गावो देयाश्च ऋत्विग्भ्यो ह्यभिषेके शतं मुने || २० |
तेभ्यो देया दक्षिणा च यत् किञ्चिच्छक्ति- पूर्वकम्।
जपेदश्वत्थमालम्ब्य मन्दवारे शतं द्विजः
भूतरोगाभिचारेभ्यो मुच्यते महतो भयाद् ।। २१ ।।
हे मुने ! अधिक समय तक जीने की इच्छा वाला विद्वान् राजा इस कार्य को अवश्य कराए तथा इस अभिषेक
के समय ऋत्विजों को सौ गायों की दक्षिणा देनी चाहिये या ब्राह्मणों को सन्तुष्ट करने वाली दूसरी दक्षिणा देगी
चाहिये अथवा अपनी शक्ति के अनुसार जो हो सके, वह देनी चाहिये । शनिवार के दिन जो ब्राह्मण, पीपल के
नीचे बैठकर सौ बार जप करता है, वह नि:संदेह भूत बाधा आदि से विमुक्त होता है ।

गुडूच्याः पर्व विच्छिन्नैर्जुहुयाददुग्ध-सिक्तकैः ।
द्विजो मृत्युञ्जयो होमः सर्व व्याधिविनाशनः ॥ २२ ॥
जो द्विज गुर्च (गिलोय) की समिधाओं को दूध में डुबा-डुबाकर हवन करता है, वह सम्पूर्ण व्याधियों से
छुटकारा पा जाता है। यह मृत्यु को जीतने वाला होम है।

आम्रस्य जुहुयात्पत्रैः पयसाज्वरशान्तये ॥२३॥
ज्वर की शान्ति हेतु, दूध में डालकर आम्रपत्तों से द्विजों को हवन करना चाहिये।

वचाभिः पयः सिक्ताभिः क्षयं हुत्वा विनाशयेत् ।
मधुत्रितय होमेन राजयक्ष्मा विनश्यति ॥ २४ ॥
अग्नि में हवन करने से राजयक्ष्मा का विनाश होता है।
दुग्ध में बच को अभिषिक्त कर, हवन करने से क्षय रोग विनष्ट होता तथा दुग्ध, दधि एवं घृत इन तीनों का अग्नि में हवन करने से राज्यक्षमा का विनाश होता है ! 

निवेद्य भास्करायान्नं पायसं होमपूर्वकम् ।
राजयक्ष्माभिभूतं च प्राशयेच्छान्तिमाप्नुयात् ॥ २५ ॥
दूध की खीर बनाकर सूर्य को अर्पण करे तथा हवन से शेष बची हुई खीर को राजयक्ष्मा के रोगी को सेवन
कराएँ, तो रोग की शान्ति होती है।

लता: पर्वसु विच्छिद्य सोमस्य जुहुयाद् द्विजः ।
सोमे सूर्येण संयुक्त प्रयोक्ताः क्षयशान्तये ॥ २६ ॥
अमावस्या के दिन सोमलता (छेउटा) की डाली से होम करने पर क्षय रोग का निवारण होता है।

कुसुमैः शंखवृक्षस्य हुत्वा कुष्ठं विनाशयेत् ।
अपस्मार विनाशः स्यादपामार्गस्य तण्डुलैः ॥ २७ ॥
शंख वृक्ष (कोडिला) के पुष्पों से यदि हवन किया जाए, तो कुष्ठ रोग का विनाश होता है तथा अपामार्ग के
बीजों से हवन करने पर अपस्मार (मृगी) रोग का विनाश होता है।

क्षीर वृक्षसमिद्धोमादुन्मादोऽपि विनश्यति ।
औदुम्बर- समिद्धोमादतिमेहः क्षयं व्रजेत् ॥ २८ ।।
क्षीर वृक्ष की समिधाओं से हवन करने पर उन्माद रोग नहीं रहता तथा औदुम्बर (गूलर) की समिधाओं से
हवन किया जाए तो महा-प्रमेह विनष्ट होता है।

प्रमेहं शमयेधुत्वा मधुनेक्षुरसेन वा ।
मधुत्रितय होमेन नयेच्छान्तिं मसूरिकाम् ॥ २९ ॥
प्रमेह की शान्ति के लिये मधु अथवा शर्बत से भी हवन करना चाहिये और मसूरिका रोग, मधुत्रय (दुग्ध,
घृत, दधि) से हवन करने पर नहीं रहता।

कपिला सर्पिषा हुत्वा नयेच्छान्तिं मसूरिकाम् ।
उदुम्बर - वटाऽश्वत्थैर्गोगजाश्वामयं हरेत् ॥ ३० ॥
कपिला गौ के घी से हवन करके भी मसूरिका को दूर करना चाहिये। गाय के सभी रोगों की शान्ति के लिये
गूलर, हाथी के रोग निवारण के लिये वट और घोड़े के रोग दूर करने के लिये पिप्पल की समिधाओं से हवन करना लाभदायक है।

पिपीलि मधुवल्मीके गृहे जाते शतं शतम् ।
शमी समिद्भिरन्नेन सर्पिषा जुहुयाद् द्विजः ॥ ३१ ॥
चींटी तथा शहद की मक्खियों द्वारा घर में छत्ता रख लेने पर शमी (छोंकर) की समिधाओं से हवन करना उत्तम है। साथ ही अन्न और घी भी होना चाहिये।

अभ्रस्तनित भूकम्पो समिद्भिर्वनवेतसः ।
बिजली की कड़क से पृथ्वी में कम्पन उत्पन्न होती हो, तो वनवेत की लकड़ियों से हवन करना चाहिए।इससे उत्पन्न भय शान्त होता है।

तदुत्थं शान्तिमायाति हूयात्तत्र बलिं हरेत् ॥ ३२ ॥
सप्ताहं जुहुयादेवं राष्ट्र राज्ये सुखं भवेत् ।
यां दिशं शतजप्तेन लोष्ठेनाभिप्रताडयेत् ॥ ३३ ॥
ततोऽग्निमारुतारिभ्यो भयं तस्य विनश्यति ।
मनसैव जपेदेनां बद्धो मुच्येत बन्धनात् ॥ ३४ ॥
किसी भी दिशा में यदि दिग्दाह हो, तो सात दिन पर्यन्त मन्त्र जपकर उस दिशा में जिधर दाह होता है, उधर ढेला फेंकना चाहिए ! इस प्रकार शांति उत्पन होती है ! एक सप्ताह तक इस क्रिया को करने से राज्य और राष्ट्र में सुख समृद्धि होती है ! 
बन्धन में ग्रसित मनुष्य गायत्री मन्त्र का मन में ही जाप करने पर बन्धन मुक्त हो जाता है ! 

भूत रोग विषादिभ्यः व्यथितं जप्त्वा विमोचयेत् ।
भूतादिभ्यो विमुच्येत जलं पीत्वाभिमंत्रितम् ॥ ३५ ॥
भूत, रोग तथा विष आदि से व्यथित पुरुष को गायत्री मन्त्र जपना चाहिये ।
(कुश से जल को स्पर्श करता हुआ गायत्री मन्त्र का जप करे । फिर इस जल को भूत, प्रेत तथा पिशाच आदि
की पीड़ा से पीड़ित मनुष्य को पिला दिया जाय तो वह रोगमुक्त हो जाता है।)

अभिमन्त्र्य शतं भस्मन्यसेद्भूतादिशान्तये ।
शिरसा धारयेद् भस्म मंत्रयित्वा तदित्यृचा ॥३६ ।।
गायत्री मन्त्र से अभिमन्त्रित भस्म लगाने से भूत-प्रेत की शान्ति होती है। मन्त्र का उच्चारण करते हुए
अभिमन्त्रित भस्म को पीड़ित व्यक्ति के मस्तक और सिर में लगाना चाहिये ।

अथ पुष्टिं श्रियं लक्ष्मी पुष्पैर्हुत्वाप्नुयाद् द्विजः ।
श्री कामो जुहुयात् पद्मैः रक्तैः श्रियमवाप्नुयात् ॥३७ ।।
श्री और सौन्दर्य की कामना करने वाले पुरुष को रक्त कमल के फूलों से हवन करने पर श्री की
प्राप्ति होती है।
(लक्ष्मी की आकांक्षा करने वाले पुरुष को गायत्री मन्त्रोच्चारण के साथ पुष्पों से हवन करना चाहियें।)

हुत्वा श्रियमवाप्नोति जाती पुष्पैर्नवैः शुभैः ।
शालितण्डुल होमेन श्रियमाप्नोति पुष्कलाम् ॥ ३८ ॥
जाती (चमेली, मालती) के पुष्पों से हवन किया जाए, तो लक्ष्मी की प्राप्ति होती हैं। इसलिये लक्ष्मी की
अभिलाषा वाले पुरुष को नवीन जाति के पुष्पों से हवन करना चाहिये । शालि चावलों से हवन करने पर लक्ष्मी
की प्राप्ति होती है ।

श्रियमाप्नोति परमां मूलस्य शकलैरपि ।
समिद्भिर्बिल्ववृक्षस्य पायसेन च सर्पिषा ॥३९ ।।
. बिल्व वृक्ष के जड़ की समिधा, खीर तथा घी इनसे हवन करने पर लक्ष्मी की प्राप्ति होती है अथवा केवल

जड़ का प्रयोग करने के स्थान में बिल्व वृक्ष की लकड़ी, पत्ते, पुष्प को लेकर सबको सुखा दें और कूट कर सामग्री बना लें, तब घी और खीर मिलाकर हवन करें।

शतं- शतं च सप्ताहं हुत्वाश्रियमवाप्नुयात् ।
लाजैस्तुमधुरोपेतैहोंमे कन्यामवाप्नुयात् ॥ ४० ॥
मधुत्रिय मिलाकर लाजा से सात दिन तक सौ-सौ आहुतियाँ देकर हवन करने पर सुन्दर कन्या की प्राप्ति
मधुत्रय होती है।

अनेन विधिना कन्या वरमाप्नोति वाञ्छितम् । 
हुत्वा रक्तोत्पलैः हेमं सप्ताहं प्राप्नुयात्खलु ॥४१ ॥ 
विधि से होम करने पर कन्या अति सुन्दर और अभीष्ट वर प्राप्त करती है । सात दिन पर्यन्त लाल कमल के फूलों से हवन करने पर सुवर्ण की प्राप्ति होती है ।

सूर्यविम्बे जलं हुत्वा जलस्थं हेममाप्नुयात् । 
अन्नं हुत्वाप्नुयादन्नं ब्रीहीन्ब्रीहिपतिर्भवेत् ॥४२ ।। 
सूर्य के मण्डल में जल छोड़ने से जल में स्थित सुवर्ण की प्राप्ति होती है। अन्न का होम करने पर अन्न की प्राप्ति होती है।

करीषचूर्णैर्वत्सस्य हुत्वा पशुमवाप्नुयात् ।
प्रियंगु पायसाज्यैश्च भवेद्धोमादिष्ट सन्ततिः ।।४३ ।।
बछड़े के सूखे गोबर के होम करने से पशुओं की प्राप्ति होती है। काकुनि की खीर व घृत के होम से अभीष्ट प्रजा की प्राप्ति होती है ! 

निवेद्य भास्करायान्नं पायसं होमपूर्वकम् ।
भोजयेत्तदृतुस्नातां पुत्ररत्नमवाप्नुयात् ।।४४ ।।
सूर्य को होम पूर्वक पायस अन्न अर्पण करके, ऋतुस्नान की हुई स्त्री को भोजन कराने से पुत्र की प्राप्ति होती है।

स प्ररोहाभिरार्द्राभिर्हुत्वा आयुष्यमाप्नुयात् ।
समिद्भिः क्षीरवृक्षस्य हुत्वाऽऽयुष्यमवाप्नुयात् ॥ ४५ ॥
पलाश की गीली समिधा से होम करने पर आयु की वृद्धि होती है। क्षीर वृक्षों की समिधा से हवन किया
जाए, तो भी आयु-वृद्धि होती है।

स प्ररोहाभिरार्द्राभिर्युक्ताभिर्मधुरत्रयैः ।
ब्रीहीणां च शतं हुत्वा हेमं चायुरवाप्नुयात् ।।४६ ।।
पलाश समिधा के तथा यवों के होम करने से, मधुत्रय से और बीहियों से सौ आहुतियाँ देने से सुवर्ण और आयु की प्राप्ति होती है ।

सुवर्ण कमलं हुत्वा शतमायुरवाप्नुयात् ।
दूर्वाभिः पयसा वापि मधुना सर्पिषापि वा ॥४७ ॥
शतं शतं च सप्ताहमपमृत्युं व्यपोहति ।
शमीसमिद्भिरन्नेन पयसा वा च सर्पिषा ॥४८ ॥

सुबर्ण कमल के होम से पुरुष शतजीवी होता है ! दूर्वा, दुग्ध, मधु (शहद) और घी से सौ-सौ आहुतियाँ देने पर, अकाल मृत्यु का भय नहीं रहता। शमी (छोंकर) की समिधाओं से, दूध से तथा घी से हवन करने पर भी अल्पमृत्यु होने का डर नहीं रहता।
क्रमशः ... गायत्री तंत्रम ( भाग २ )  ... कल सुबह ब्रह्ममुहुर्त में ! 
||  इति शुभम् प्रभातम  ...  ॐ शांति ॐ ( क्रमश: )  |||.....रीता सिंह

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